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दुर्गा दास--मुंशी प्रेमचंद


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वीर दुर्गादास अब निश्चिन्त था।, किसी प्रकार की बाधा दिखाई न देती थी। अरावली की पहाड़ियों को पार करके लोग एक मैदान में यह सलाह करने के लिए जमा हुए कि अब क्या करना चाहिए?

 कहां चलना चाहिए? एकाएक किसी कि आवाज ने सबको चौंका दिया....'अरे दुष्ट। मुझे क्यों मारता है? क्यों नष्ट करता है? मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है? अरे, रक्षा करो, कोई बचाओ। पापी, अबला पर क्या बल दिखाता है?अच्छा, मुझे भी तलवार दे, वीर दुर्गादास उधर ही दौड़ा, जिधर से यह आवाज आ रही थी। पीछे-पीछे गंभीरसिंह और जसकरण भी थे। दुर्गादास ने यह देखा कि एक अबला पर एक पुरुष बलात्कार करना चाहता है; परन्तु अन्धकार के कारण पहचान न सका। डपटकर पूछा तू कौन है? मैं क्या कर कहा – ‘हूं, तुझसे प्रयोजन? दुर्गादास ने कहा – ‘क्या सीधे न बतायेगा? इतना कहना था। कि तलवार खींच सामने आया और चाहता था।, कि दुर्गादास पर वार करे, इसके पहले ही गंभीरसिंह ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। दुर्गादास ने स्त्राी से पूछा बेटी, तुम कौन हो और यह दुष्ट कौन था।? इसने तुमको कहां पाया? बेटी ने कहा – ‘पिताजी, मैं माड़ों के राजा महासिंह की कन्या लालवा हूं और यह पापी चन्द्रसिंह था।अपने किये का फल पा गया। दुर्गादास ने पीछे किसी की आहट पाई, मुड़कर देखा, जसकरण और गंभीरसिंह दौड़े जा रहे हैं। दुर्गादास हाथ में तलवार लिये लालवा की रक्षा के लिए वहीं खड़ा रहा। थोड़ी देर में गंभीरसिंह और जसकरण हाथों में बागडोर पकड़े पांच घोड़े ले आये और बोले महाराज! इस पापी के तीन साथी और थे।

 हमने उन्हें देख लिया और पीछा किया। घोड़ों पर चढ़कर भाग जायें परन्तु यह कैसे होता? उन्हें तो मौत खींच लाई थी। वे तो नरक गये और घोड़े आपके लिए छोड़ गये।

लालवा ने गंभीरसिंह को बोली से पहचाना और पुकारा भाई गंभीरसिंह! क्या आपत्ति में आप भी हमको नहीं पहचानते? गंभीरसिंह ने कहा– ‘कौन लालवा! अरी, तू यहां पापियों में कैसे आ फंसी?

 लालवा ने कहा – ‘माता तेजबा के कारण! भाई, तेजबा मेें क्षत्रणी की कुछ भी ऐंठ नहीं, वह सदैव राज-सुख की भूखी रहती है। कदाचित पापी चन्द्रसिंह ने किसी प्रकार लालच देकर तेजबा को फंसाया लालवा मेरी अंगूठी पाकर अवश्य ही अंगूठी देनेवाले के साथ चली जायेगी। गंभीरसिंह ने कहा – ‘बहन लालवा! यह कैसे विश्वास किया जाय, कि तेजबा और काका महासिंह को पकड़ लिया, तो हो सकता है कि अंगूठी उतार ली हो।

 लालवा ने कहा – ‘नहीं, मान लिया जाय कि चन्द्रसिंह ने अंगूठी छीन ली थी, तो हमारा पता कैसे पाता, कि मैं सुरंग से बाबा महेन्द्रनाथ की गढ़ी में पहुंची, और वहीं रही। भाई ऐसे तर्कों से मुझे विश्वास हो गया कि तेजबा के सिवाय दूसरे ने कपट नहीं किया। गंभीर बोला अच्छा लालवा, यह तो बता कि जब तू चन्द्रसिंह को पहचानती थी, और उसके स्वभाव से परिचित थी, तब उसके मायाजाल में क्यों फंसी! लालवा बोली भाई, तेजबा की अंगूठी ले जाने वाला कोई दूसरा ही राजपूत था।उसने जाकर कहा – ‘कि तेजबा ने लालवा को बुलवाया है; क्योंकि महासिंह बहुत दुखी और यही चाहते हैं कि लालवा उनकी आंखों के सामने रहे। तो मैं मोह से अन्धी हो गई। विश्वास के लिए अंगूठी थी ही। बस बाबा महेन्द्रनाथ से विदा हो, इस पापी के साथ चल दी। इसके बाद इस विपत्ति में आ फंसी। ईश्वर ने पापियों की इच्छा पूरी होने के पहले ही रक्षा के लिए आपको भेज दिया।

वीर दुर्गादास ने उसे धौर्य दिलाते हुए कहा – ‘बेटी! अब मैं तुझे ऐसे अच्छे और सुरक्षित स्थान में रखूंगा, जहां किसी प्रकार की शंका न होगी। लालवा ने कहा – ‘नहीं, अब मैं कहीं भी अकेली नहीं रहना चाहती। यदि आप मेरी रक्षा करना चाहते हो तो अपने साथ रहने दें। मैं भी अब सिपाहियों के भेष में रहूंगी; यथा।शक्ति आपकी सहायता करूंगी। मुझे इससे अच्छा अब अपनी रक्षा का उपाय नहीं सूझता। दुर्गादास एक बालिका में इतना साहस देख बड़ा प्रसन्न हुआ और उसे अपने साथ रखना स्वीकार कर लिया! गंभीरसिंह ने चन्द्रसिंह के कपड़े उतार दिये और लालवा तुरन्त ही एक वीर राजपूत बन गई। 

हाथ में तलवार पकड़ी और घोड़े पर सवार हो दुर्गादास के पीछे-पीछे चल दी।

क्रमशः.


 

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